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भगवान महावीर ने कहा था कि संसार में लोक कल्याण, विश्वशांति, सद्भाव और समभाव के लिये अपरिग्रह का भाव जरूरी है। यही अहिंसा का मूल आधार है। परिग्रह की प्रवृत्ति अपने मन को अशांत बनाती है और हर प्रकार से दूसरों की शांति को भंग करती है। लेकिन आज हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल रही है। धनवान व्यक्ति परिग्रह और अहं प्रदर्शन के द्वारा असहायों एवं कमजोरों के लिये समस्याएं पैदा करता है। यह संसाधनों पर कब्जा ही नहीं करता बल्कि उसका बेहूदा प्रदर्शन करता है, जिससे मानसिक क्रोध बढ़ता है और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। महावीर ने इसलिए एक-दूसरे के सहायक बनने की बात कही। उन्हीं के दिये उपदेशों से निकला शब्द है विसर्जन।

समतामूलक समाज निर्माण के लिये जरूरी है कि कोई भी कितना ही बड़ा व्यवसायी बने, लेकिन साथ में अपरिग्रहवादी भी बने। अर्जन के साथ विसर्जन की राह पर कदम बढ़ाये। डा. अच्युता सामंता ने कलिंग विश्वविद्यालय के रूप में उच्च शिक्षा के बड़े गढ़ स्थापित किये तो उससे होने वाली आय को आदिवासी गरीब बच्चों के कल्याण में विसर्जित किया। 12 हजार से अधिक गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने वाले सामंता आज भी एक चटाई पर सोते हैं उनका कोई आशियाना नहीं है। इसी भांति गणि राजेंद्र विजयजी अपनी संतता को सार्थक करते हुए आदिवासी कल्याण के लिये अनेक योजनाएं संचालित कर रहे हैं, उनका भी कोई भव्य आश्रम नहीं है। ऐसे ही प्रयत्नों से हम भारत को विकसित होते हुए देख सकते हैं। तभी तो शंकराचार्य ने कहा है- दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। गांधीजी ने अहमदाबाद में आश्रम शुरू किया, एक समय आर्थिक तंगी के कारण आश्रम बंद करने की नौबत आयी। गांधी जी मंथन कर रहे थे। आश्रम बंद होगा, यह बात निश्चित लग रही थी। एक शाम एक सर्वथा अनजाना व्यक्ति आया और रुपयों की एक थैली देकर, साबरमती के अंधकार में अदृश्य हो गया। आज तक यह पता नहीं लग सका कि व्यक्ति कौन था। आश्रम अगर चालू रह सका, तो उस व्यक्ति के कारण। निःस्वार्थ, सहज, सात्विक उपकार ऐसा ही होता है। सही रूप में विसर्जन, बिना किसी अपेक्षा के। ऐसा उपकार मनुष्य पर प्रकृति पल-पल करती रहती है। सूर्य, पृथ्वी, वायु आकाश एवं जंगलों की तरफ से सतत् होता रहता है- तभी हमारी जीवन है हम जिंदा हैं।

इसीलिये जार्ज बनार्ड शा को कहना पड़ा कि कमाए बगैर धन का उपयोग करने की तरह ही खुशी दिए बगैर खुश रहने का अधिकार हमें नहीं है। रेल में या बस में थोड़ा सिकुड़ कर अगर आप किसी के लिये जगह बना देते हैं तो एक विशेष प्रकार के संतोष की अनुभूति होती है। स्मरण कीजिए, भूतकाल में कई बार आपके लिये किसी ने इसी प्रकार जगह बना दी थी। आज आप उनका नाम व चेहरा भी भूल गये होंगे। यह दुनिया भी एक रेल है। यहां भी ऐसे ही किसी अनजान के लिये थोड़ा संकोच करें बिना किसी अपेक्षा के, पेड़ अगर फल देता है तो क्या आपसे थैंक्यू की भी अपेक्षा करता है? सचमुच देने का सुख अप्रतिम है। कृतज्ञता अहंकार का विसर्जन है। संत तिरूवललुवर की उक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है कि स्ेह शून्य व्यक्ति सब वस्तुओं को अपने लिए मानते हैं। स्नेह संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को भी दूसरों का मानते हैं। उपकार का आनंद अनुभव करना है तो आपने जो किया उसे जितनी जल्दी ही भूल जाएं और आपके लिये किसी ने कुछ किया, उसे कभी न भूलें। आज जरूरत है हर समर्थ आदमी अपने से कमजोर का सहायक बने। तकलीफ तब होती है जब इसका उल्टा होता है।

 

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