नईदिल्ली
लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) में मिले खंडित जनादेश ने दिल्ली को दूर तक देखने पर मजबूर कर दिया है. दो दशक में ये पहला मौका है, जब केंद्र की कुर्सी पर बैठने के लिए नेताओं को सुदूर क्षत्रपों की तरफ देखना पड़ रहा है. क्योंकि जनता ने ऐसा निर्णय दिया है, कि कोई भी पार्टी अकेले दम पर दिल्ली के सिंहासन पर नहीं बैठ सकती है. यही वजह है कि सबकी निगाह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्रा के नेता चंद्रबाबू नायडू पर जाकर टिक गई है.
लेकिन ये कोई पहला मौका नहीं है जब चंद्रबाबू नायडू केंद्र के लिए किंगमेकर बनकर उभरे हैं. अभिनेता से राजनेता बने नायडू पहले भी कई बार सरकार के गठन में नायक की भूमिका निभा चुके हैं. इतना ही नहीं तेलुगु देशम पार्टी की नीव रखने वाले और चंद्रबाबू नायडू के श्वसुर एन.टी रामाराव, जिन्होंने 1980 के दशक में सेल्यूलॉइड की चमकीली स्क्रीन से राजनीति की खुरदरी जमीन पर कदम रखा था. उन्होंने भी दिल्ली की सत्ता के गठन में 1989 में अहम भूमिका निभाई थी.
दो साल में तीन प्रधानमंत्री
1996 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने पी.वी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार को नकार दिया था, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि किसी और दल को पूरी तरह से स्वीकार किया हो. हां, भाजपा तब 161 सीटो के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जरूर थी, किंतु बहुमत के आंकड़े से कोसों दूर थी. इसके बावजूद तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के निमंत्रण पर अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली थी, लेकिन 13 दिनों में ही उन्हें इस बात का इलहाम हो गया था कि वे बहुमत के आंकड़े को नहीं जुटा पायेंगे तब वाजपेयी ने अपने अंदाज में इस्तीफा दे दिया था.
इसके बाद वी.पी सिंह, हरीकिशन सिंह सुरजीत और चंद्रबाबू नायडू ने मिलकर संयुक्त मोर्चा का गठन किया, जिसमें पहले प्रधानमंत्री के लिए बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु का नाम आया. लेकिन कुछ आपसी असहमतियों की वजह से वो प्रधानमंत्री नहीं बन पाए.
किंगमेकर नायडू
उसी साल बतौर किंगमेकर, उदय हुआ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू का, लोकसभा चुनाव में मात्र 16 सीटों पर जीत हासिल करने वाले नायडू ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी देवगौड़ा का नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित कर, भारतीय राजनीति में एक नई पटकथा को लिख दिया, क्योंकि उसके पहले दक्षिण का कोई भी नेता देश का प्रधानमंत्री नहीं बना था.
इसके साथ ही नायडू ने लुटियंस की दिल्ली का द्वार दक्षिण के लिए भी खोल दिया था. खैर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बन तो गए, लेकिन उनकी सरकार एक साल में ही गिर गई क्योंकि सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था.
उसके बाद मुलायम सिंह यादव, एस.आर बोम्मई समेत और कई नेताओं ने प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी पेश की, लेकिन जब किसी नाम पर भी सहमती नहीं बनी तब लालू प्रसाद यादव ने इंद्र कुमार गुजराल का नाम आगे बढ़ा दिया. जिसके बाद चंद्रबाबू नायडू ने हरकिशन सिंह सुरजीत को एक फोन कॉल किया और उनसे कहा कि 'गुजराल के नाम पर सब लोग सहमत हो गए हैं आप भी मान जाइए.' सुरजीत, नायडू की बात मान गए और इस तरह से 21 अप्रैल 1997 को देश को आई.के गुजराल के रूप में एक नया प्रधानमंत्री मिल गया.
ये एक संयोग ही है कि चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी ने इस बार भी लोकसभा चुनाव में 16 सीटो पर जीत हासिल किया है. लेकिन इतनी कम सीटों के बावजूद भी 18 वीं लोकसभा के गठन में चंद्रबाबू नायडू को बतौर किंगमेकर के रूप में देखा जा रहा है. तमाम राजनीतिक दल ये कयास लगा रहे थे कि नायडू क्या फैसला लेते हैं, इन तमाम कयासों पर शुक्रवार के दिन सेंट्रल हॉल में उन्होंने पूर्ण विराम लगा दिया.
चंद्रबाबू नायडू ने संसदीय दल की बैठक में एनडीए के नेता के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम के प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए दावा किया कि पिछले 10 साल में भारत में बड़ा बदलाव देखने को मिला है और Indian Economy दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बनकर उभरी है. नायडू ने आगे कहा कि 'देश की इकोनॉमी की ये तेज रफ्तार इसी तरह जारी रहेगी और पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत इस बार तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा.'
एनटी रमाराव
"राजा नहीं फकीर है,भारत की तकदीर है"
1989 में जब यह नारा इलाहाबाद की गलियारों से होकर देश के कोने-कोने में गूंजने लगा तब गैर कांग्रेसी नेशनल फ्रंट के गठन में दक्षिण के लाल एनटीआर (NTR) यानि नंदमुरी तारक रामाराव ने अहम भूमिका निभाई थी. जो हाल ही में अभिनय की रंगीन दुनिया को त्याग राजनीति की सफेदी अपनाने की कोशिश कर रहे थे. उस वक्त बोफोर्स का हवाला बजा वी पी सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोला और दिल्ली का दिवान बनकर देश संभाला था. तब उस सरकार के गठन में एनटीआर ने अग्रसर होकर भाग लिया. हालांकि उस चुनाव में टीडीपी को मात्र 2 सीटें ही मिली थी फिर भी उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि जिसके बिना दिल्ली का दिवानी दरबार अधूरा था.
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